सबकुछ कहां से प्रारंभ हुआ? क्या यह संभव है कि ब्रह्मांड की महान योजना हमारे अपने संघर्षों, इच्छाओं और उद्देश्य का प्रतिबिंब हो? जिस प्रकार हम अपने जीवन की राह तय करते हैं—करियर का चुनाव, संबंधों का निर्माण और अपनी तकदीर को आकार देना—उसी प्रकार इस महाकाय ब्रह्मांड का भी एक रचनाकार था।
भागवत पुराण के पृष्ठों में प्रवेश कीजिए, जहां विज्ञान और आध्यात्म एक साथ आते हैं, और जानिए इस सृष्टि की अविस्मरणीय उत्पत्ति की कहानी। आइए, समय, अंतरिक्ष और उसके परे एक ऐसे रहस्यमयी यात्रा पर निकलें—जहां पौराणिक कथाएँ वास्तविकता से मिलती हैं।
राजा परीक्षित, जो परम ज्ञान की खोज में तल्लीन थे, उन्होंने महर्षि श्री शुकदेव जी से एक गूढ़ प्रश्न पूछा:
“विराट पुरुष, अर्थात् ब्रह्मांडीय व्यक्तित्व से यह सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई?”
श्री शुकदेव जी मंद मंद मुस्काए, उनकी दृष्टि स्थिर और ज्ञानमयी थी। उन्होंने उत्तर दिया,
“मैं तुम्हें यह दिव्य कथा सुनाऊँगा, जो पवित्र भागवत पुराण में वर्णित है—एक अनंत ज्ञान की गाथा, जो दस महान विषयों की व्याख्या करती है: सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वंतर, ईशकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय।”
शुकदेव जी की वाणी गूंज उठी, जब उन्होंने इन गूढ़ ब्रह्मांडीय सिद्धांतों को उजागर किया—हर एक तत्व इस अस्तित्व के ताने-बाने में एक अनिवार्य सूत्र की तरह बुना हुआ है।
आइए, इन रहस्यमयी तत्वों को विस्तार से समझें…
1. सर्ग (प्रथम सृष्टि):
सर्ग सृजन के उन मौलिक सिद्धांतों को दर्शाता है, जो दिव्य प्रेरणा और परिवर्तन से अस्तित्व में आए। इसमें पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), शब्द (ध्वनि), मात्राएं (इंद्रियों के अनुभवों के मापदंड), इंद्रिय (ज्ञानेंद्रियां और कर्मेंद्रियां), अहंकार (स्वरूप की अनुभूति), और महत्तत्व (ब्रह्मांडीय बुद्धि या समष्टि चेतना) शामिल हैं। ये सूक्ष्म तत्व सृष्टि की बुनियाद रखते हैं और परमात्मा की दिव्य इच्छा से उत्पन्न होते हैं।
2. विसर्ग (द्वितीयक सृष्टि):
विसर्ग ब्रह्माजी द्वारा सजीव और निर्जीव वस्तुओं की सृष्टि को दर्शाता है। विराट पुरुष से प्रकट हुए जो विभिन्न रूपों में जीवों और तत्वों को संगठित कर इस ब्रह्मांड के जीवन चक्र को स्थापित करते हैं।
3. स्थान (सृष्टि का संरक्षण):
“स्थान” सृष्टि के संरक्षण और उसके संतुलन को बनाए रखने का प्रतीक है। भगवान विष्णु, पालक रूप में, सृष्टि को एक निश्चित नियमबद्ध व्यवस्था के तहत चलाते हैं, जिससे इसका समय से पहले विनाश न हो। यह ईश्वरीय कृपा का प्रमाण है, जो ब्रह्मांड को स्थिरता और निरंतरता प्रदान करता है।
4. पोषण (दिव्य कृपा और संरक्षण):
पोषण का तात्पर्य ईश्वरीय कृपा और समस्त प्राणियों के पालन-पोषण से है। यह दर्शाता है कि भगवान विष्णु अपनी शरण में आए भक्तों को कैसे पोषित करते हैं, उनका मार्गदर्शन करते हैं और उन्हें धर्म और आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ाते हैं।
5. ऊति (कर्म बंधन):
ऊति कर्म-फल के सिद्धांत को दर्शाता है, जहां प्रत्येक जीव अपने कर्मों के अनुसार बंधन में बंधता है और उसका भविष्य निर्धारित होता है। यह सिद्धांत बताता है कि चेतन जीवन जीना और आध्यात्मिक साधनाएं अपनाना आवश्यक है, जिससे इस कर्मबंधन से मुक्ति पाई जा सके।
6. मन्वंतर (धार्मिक शासन के युग):
मन्वंतर उन ब्रह्मांडीय युगों का वर्णन करता है, जिनमें मानवता और धर्म के संरक्षक शासन करते हैं। इन कालखंडों में शासक शुद्ध धर्म का पालन करते हैं और समाज के कल्याण को सुनिश्चित करते हैं, साथ ही परमेश्वर के प्रति भक्ति को बढ़ावा देते हैं।
7. ईशकथा (दिव्य गाथाएँ):
ईशकथा भगवान के विभिन्न अवतारों और उनके भक्तों के जीवन की प्रेरणादायक कहानियों को समाहित करती है। ये कथाएँ शिक्षा और प्रतीकवाद से भरपूर होती हैं, जो समर्पण, विश्वास और दिव्य प्रेम के गुणों को उजागर करती हैं और भक्ति भावना को प्रबल करती हैं।
8. निरोध (ब्रह्मांडीय विलय):
निरोध का अर्थ है व्यक्तिगत आत्मा का अपनी सीमाओं और गुणों सहित परमात्मा में विलीन हो जाना। जब भगवान योगनिद्रा में प्रवेश करते हैं, तब संपूर्ण सृष्टि का प्रलय होता है और सभी तत्व पुनः उन्हीं में समाहित हो जाते हैं, जो ब्रह्मांड के चक्रीय स्वरूप को दर्शाता है।
9. मुक्ति (मोक्ष):
मुक्ति, या मोक्ष, शरीर, इंद्रियों और भौतिक अस्तित्व से मिथ्या पहचान का त्याग करना है। यह आत्मा के वास्तविक स्वरूप की पहचान और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त करने की प्रक्रिया है। यह आत्मबोध शाश्वत शांति और दिव्य चेतना से एकत्व की ओर ले जाता है।
10. आश्रय (परम शरण):
आश्रय वह परम सत्य और अंतिम शरण है, जिससे समस्त सृष्टि उत्पन्न होती है और अंततः उसी में विलीन हो जाती है। इसे परम ब्रह्म या परमात्मा कहा जाता है, जो समस्त अस्तित्व का आधार है और आध्यात्मिक प्राप्ति का अंतिम लक्ष्य भी।
विराट पुरुष और सृष्टि की उत्पत्ति
ब्रह्मांडीय शून्य की गहराइयों से विराट पुरुष, अर्थात परम ब्रह्मांडीय पुरुष, प्रकट हुए। वे अद्भुत और असीम थे, और उन्होंने एक आवास की खोज की, जहाँ से अनादि सृष्टि चक्र को आरंभ किया जा सके। अतः, उन्होंने शुद्ध और पवित्र जल की रचना की, जिसे नार कहा गया। इस जल में हजार वर्षों तक निवास करने के कारण वे नारायण कहलाए—अर्थात, जो नार (जल) में वास करते हैं।
यह सृजन एक संयोग मात्र नहीं था, बल्कि यह भगवान नारायण की इच्छा, उद्देश्य और कृपा से उत्पन्न हुआ था। उन्होंने सृष्टि में समय, कर्म, प्रकृति और अस्तित्व का संचार किया। उनकी योग साधना से सृजन और विस्तार की इच्छा प्रकट हुई।
पंचमहाभूत और ब्रह्मांड की उत्पत्ति
जैसे ही नारायण ने अपनी इच्छा व्यक्त की, पंचमहाभूत (पांच तत्व) जाग्रत होने लगे—आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। पहले ये तत्व सूक्ष्म रूप में थे, फिर यही स्थूल ब्रह्मांड की नींव बने।
उनके विराट शरीर से इंद्रियाँ प्रकट हुईं, और प्रत्येक इंद्रिय के साथ एक विशिष्ट इच्छा भी उत्पन्न हुई:
- जब बोलने की इच्छा हुई, तो वाणी और श्रवण इंद्रियाँ उत्पन्न हुईं, और साथ में वायु देवता (हवा) भी प्रकट हुए।
- जब देखने की इच्छा हुई, तो आंखें प्रकट हुईं, और उनके अधिष्ठाता सूर्य देव बने।
- जब भूख और प्यास जागृत हुई, तो मुख और स्वादेंद्रियाँ प्रकट हुईं, और पोषण के लिए नदियाँ और महासागर बने।
- जब स्पर्श करने की इच्छा हुई, तो त्वचा बनी, जिससे कोमलता, कठोरता, शीत और ऊष्णता के अनुभव संभव हुए।
यह सब यथासंभव और प्रतीकात्मक था। यह दर्शाता है कि मानव अनुभव और ब्रह्मांडीय अस्तित्व में एक गहरा संबंध है। इस प्रक्रिया के माध्यम से वृक्ष, नदियाँ, पशु, देवता, और अंततः मानवता का सृजन हुआ।
विचारों और इच्छाओं का केंद्र
विराट पुरुष का हृदय विचारों और भावनाओं का केंद्र बना। इसी से मन उत्पन्न हुआ—जो इच्छाओं, संकल्पों और स्वप्नों से परिपूर्ण था। और इसी मन से चंद्रमा प्रकट हुआ, जो मन का अधिष्ठाता देवता बना। विचारों ने अहंकार और बुद्धि के सूक्ष्म तत्वों के साथ मिलकर भौतिक और आध्यात्मिक जगत के बीच एक सेतु का निर्माण किया।
श्री शुकदेवजी ने बताया कि यह ब्रह्मांडीय पुरुष, जो स्थूल और सूक्ष्म रूपों में प्रकट हुआ, वास्तव में परम भगवान का ही विस्तार मात्र है। इन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूपों से परे एक ऐसी सूक्ष्म और गूढ़ वास्तविकता स्थित है, जो सभी सीमाओं से परे है। वही अंतिम आश्रय (आश्रय तत्त्व) है—समस्त अस्तित्व का परम आधार।
ब्रह्मांडीय पुष्प और उसकी सूक्ष्म प्रकृति
श्री शुकदेवजी ने विराट पुरुष की तुलना एक दिव्य ब्रह्मांडीय पुष्प से की, जो आठ आवरणों से आच्छादित है—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्व और प्रकृति। इन आवरणों से परे भगवान का एक अत्यंत सूक्ष्म और पारलौकिक रूप स्थित है, जिसे सामान्य मन से समझ पाना असंभव है।
ये दो रूप—स्थूल (प्रत्यक्ष ब्रह्मांड) और सूक्ष्म (अप्रत्यक्ष तत्त्व)—भगवान की माया के ही प्रकट स्वरूप हैं। यह माया परम सत्य को आवृत करती है, ताकि जीव इस भ्रम से निकलकर आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर बढ़ सके।
इस कथा के माध्यम से भागवत पुराण का गहन ज्ञान प्रकट होता है, जो हमें अस्तित्व की गूढ़ एकता को समझने की प्रेरणा देता है और जीवन तथा आध्यात्मिकता की गहरी सच्चाइयों को जानने का मार्ग प्रशस्त करता है।
विविधता में एकता: सब कुछ परमात्मा ही है
“इसे समझो,” श्री शुकदेवजी ने जोर देते हुए कहा, “हर जीव—चाहे वह प्रजापति हो, मनु हो, देवता हो, ऋषि हो, पितृ हो, या फिर पशु-पक्षी, पर्वत, नदियाँ—सभी परम भगवान का ही अंश हैं। माया (भ्रम) से ढके होने के कारण वे अलग-अलग प्रतीत होते हैं, परंतु उनकी उत्पत्ति उन्हीं से होती है और अंततः वे उन्हीं में विलीन हो जाते हैं।”
उन्होंने आगे यह स्पष्ट किया कि सभी प्राणियों और वस्तुओं का अस्तित्व उसी ब्रह्मांडीय ऊर्जा का विस्तार है। चाहे वह दिन का मार्गदर्शन करने वाला सूर्य हो या जीवन को पोषित करने वाली नदियाँ, हर तत्व उसी दिव्य योजना का एक अंश है और उसकी संगीतमय लय में कार्य करता है।
अंतिम विचार: एक सचेत जीवन जीने का आह्वान
विराट पुरुष की कथा हमें यह सिखाती है कि जीवन पवित्र और परस्पर जुड़ा हुआ है। जब हम प्रकृति, अन्य मनुष्यों और अपने कर्मों में ईश्वरीय चेतना को देखते हैं, तो हम ब्रह्मांड के साथ एक गहरा संबंध स्थापित करते हैं। सृष्टि किसी संयोग से नहीं, बल्कि एक गहरे उद्देश्य से बनी है—जिस तरह हमारा जीवन भी सजगता, करुणा और सेवा के माध्यम से सार्थक बन सकता है।
यह ब्रह्मांडीय कथा एक दर्पण की भांति हमें दिखाती है कि हम भी अपने ही जीवन के सृजनकर्ता हैं। हमारी सोच, कर्म और संबंध एक लहर की तरह फैलते हैं और हमारे चारों ओर की दुनिया को आकार देते हैं। विराट पुरुष की शिक्षा हमें एक सचेत जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है, जिससे हम इस जगत को अपने ही अस्तित्व का एक विस्तार मानकर उसका पोषण करें।
जब हम इस सत्य को आत्मसात कर लेते हैं—कि सब कुछ परमात्मा ही है, और परमात्मा ही सब कुछ है—तब हमारा जीवन उसकी दिव्यता के साथ एकाकार हो जाता है।
यह कथा आज के समय में एक प्रकाश स्तंभ की तरह चमकती है, हमें भेदभाव और द्वैत के भ्रम को मिटाने और सृष्टि की अनंत एकता को अपनाने का संदेश देती है। इसी बोध के माध्यम से मानवता संघर्षों को पार कर सकती है, सच्ची शांति प्राप्त कर सकती है, और अपने दिव्य उद्देश्य को पूरा कर सकती है।
Really is so deep and engrossing that the knowledge when it sits in your mind can transform you into a greater person, a glory, humble and surrender, accepting soul to the divinity.